जागेश्वर ,अल्मोड़ा नगर से पूर्वोत्तर दिशा में पिथौरागढ़ मार्ग पर 36 किमी की दूरी पर स्थित है. जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतताप्रदान कर रहे हैं।
जागेश्वर की तल से ऊंचाई 1870 मीटर है. देवदारू के घने वृक्षों से घिरी यह घाटी एक मनोहारी तीर्थस्थल है. जागेश्वर में 124 मंदिरों का एक समूह है, जो अति प्राचीन है. इसके चार-पांच मंदिरों में आज भी नित्य पूजा-अर्चना होती है. यहां स्थित शिवलिंग भगवान शिव के प्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात है. बारह ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं: प्रथम श्री सोमनाथ, जो सौराष्ट्र के कइयावाड़ में स्थित है. दूसरा श्री शैल पर्वत, जो तमिलनाडु के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के तट पर श्री मल्लिकार्जुन के नाम से कैलाश पर्वत पर स्थित है. तीसरा मध्य प्रदेश के उज्जयिनी में श्री महाकाल के नाम से विख्यात है. चौथा ओंकारेश्वर अथवा ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है. पांचवा हैदराबाद के परली में वैद्यनाथ के नाम से विख्यात है. छठवां पुणे से उत्तर भीमा नदी के तट पर डाकिनी नामक स्थान पर श्री भीम शंकर के नाम से स्थित है. इसी प्रकार तमिलनाडु के रामनद ज़िले में सेतुबंध श्री रामेश्वरम् के नाम से सातवां ज्योतिर्लिंग है. आठवां दारुकावन अल्मोड़ा से 35 किमी की दूरी पर योगेश्वर अथवा जागेश्वर के नाम से स्थित है. नौंवे ज्योतिर्लिंग के रूप में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में बाबा विश्वनाथ की पूजा की जाती है. गोदावरी के तट पर नासिक-पंचवटी के निकट स्थित श्री त्रयंबकेश्वर को दसवां ज्योतिर्लिंग माना जाता है. वहीं देवभूमि हिमालय के केदारखंड में स्थित श्री केदारनाथ ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात हैं. जागेश्वर में इन मंदिर समूहों का निर्माण किसने कराया, इस सवाल का जवाब खोजने पर भी नहीं मिलता, किंतु इन मंदिरों का जीर्णोद्धार राजा शालिवाहन ने अपने शासनकाल में कराया था. पौराणिक काल में भारत में कौशल, मिथिला, पांचाल, मस्त्य, मगध, अंग एवं बंग नामक अनेक राज्यों का उल्लेख मिलता है. कुमाऊं कौशल राज्य का एक भाग था. माधवसेन नामक सेनवंशी राजा देवों के शासनकाल में जागेश्वर आया था. चंद्र राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी. देवचंद्र से लेकर बाजबहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा-अर्चना की. बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गोरी कुंड और जागेश्वर की देव मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रहीं. जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की. स्थानीय विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश लिंग घोषित किया गया.
कहते हैं, दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दु:खी भगवान शिव ने यज्ञ की भस्म लपेट कर दायक वन के घने जंगलों में दीर्घकाल तक तप किया. इन्हीं जंगलों में वशिष्ठ आदि सप्त ॠषि अपनी पत्नियों सहित कुटिया बनाकर तप करते थे. शिव जी कभी दिगंबर अवस्था में नाचने लगते थे. एक दिन इन ॠषियों की पत्नियां जंगल में कंदमूल, फल एवं लकड़ी आदि के लिए गईं तो उनकी दृष्टि दिगंबर शिव पर पड़ गई. सुगठित स्वस्थ पुरुष शिव को देखकर वे अपनी सुध-बुध खोने लगीं. अरुंधती ने सब को सचेत किया, किंतु इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रहा. शिव भी अपनी धुन में रमे थे, उन्होंने भी इस पर ध्यान नहीं दिया. ॠषि पत्नियां कामांध होकर मूर्छित हो गईं. वे रात भर अपनी कुटियों में वापस नहीं आईं तो प्रात: ॠषिगण उन्हें ढूंढने निकले. जब उन्होंने यह देखा कि शिव समाधि में लीन हैं और उनकी पत्नियां अस्त-व्यस्त मूर्छित पड़ी हैं तो उन्होंने व्याभिचार किए जाने की आशंका से शिव को शाप दे डाला और कहा कि तुमने हमारी पत्नियों के साथ व्याभिचार किया है, अत: तुम्हारा लिंग तुरंत तुम्हारे शरीर से अलग होकर गिर जाए. शिव ने नेत्र खोला और कहा कि आप लोगों ने मुझे संदेहजनक परिस्थितियों में देखकर अज्ञान के कारण ऐसा किया है, इसलिए मैं इस शाप का विरोध नहीं करूंगा. मेरा लिंग स्वत: गिरकर इस स्थान पर स्थापित हो जाएगा. तुम सप्त ॠषि भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे. लिंग के शिव से अलग होते ही संसार में त्राहि-त्राहि मच गई. ब्रह्मा जी ने संसार को इस प्रकोप से बचाने के लिए ॠषियों को मां पार्वती की उपासना का सुझाव देते हुए कहा कि शिव के इस तेज को पार्वती ही धारण कर सकती हैं. ॠषियों ने पार्वती जी की उपासना की. पार्वती ने योनि रूप में प्रगट होकर शिवलिंग को धारण किया. इस शिवलिंग को योगेश्वर शिवलिंग के नाम से पुकारा गया. यहां लगभग २५० मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे २२४ मंदिर स्थित हैं।
इतिहास
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 150 छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी स्लैबों से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।
स्थिति
जागेश्वर धाम के मंदिर।
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वरऔर भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगाके तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।
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