चिपको आन्दोलन का सीधे-सीधे अर्थ है किसी चीज से चिपकर उसकी रक्षा करना. चिपको आन्दोलन की शुरुआत उत्तराखंड, पूर्व में उत्तर प्रदेश का भाग जो 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक नया राज्य बना. चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण की रक्षा करने का एक ग्रामीण आन्दोलन था. इसकी शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले में सन 1973 में हुई थी. तब गाँव के ग्रामीण किसानो ने राज्य के वन ठेकेदारों द्वारा वनों और जंगलो को काटने के विरोध में चिपको आन्दोलन लड़ा गया था.
वनों की कटाई को रोकने के लिये गाँव के पुरुष और महिलाये पेड़ से लिपट जाती थी और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने देती थी. इस आन्दोलन में महिलायों की संख्या अधिक थी. इस आन्दोलन में प्रसिद्ध पर्यावरण प्रेमी सुन्दरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, श्रीमती गौरा देवी और गाँव के ग्रामीणों ने मिलकर इस आन्दोलन को अंजाम दिया. इस आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है.
देश भर का हीरो बना दिया
पांचवीं क्लास तक पढ़ी ‘गौरा देवी’ की पर्यावरण विज्ञान की समझ और उनकी सूझबूझ ने अपने सीने को बंदूक के आगे कर के, अपनी जान पर खेल कर, जो अनुकरणीय काम किया, उसने उन्हें सिर्फ रैंणी गांव का ही नहीं, उत्तराखंड का ही नहीं, बल्कि पूरे देश का हीरो बना दिया. विदेशों में उन्हें ‘चिपको वूमेन फ्रॉम इंडिया’ कहा जाने लगा.
चिपको आंदोलन' एक आदिवासी औरत गौरा देवी के अदम्य साहस और सूझबूझ की दास्तान है.
1925 में चमोली जिले के एक आदिवासी परिवार में जन्मी, केवल पांच दर्जे तक पढ़ी, गौरा देवी ने आज से 43 साल पहले पेड़ और उसे काटने वाले आरे के बीच खुद को खड़ा कर के, सिर्फ आंदोलन ही नहीं चलाया बल्कि देश को पर्यावरण के बारे में सोचना भी सिखाया.
2011 में, मशहूर पर्यावरणविद ‘वंदना शिव’ ने इंडिया टुडे मैगजीन से बात करते हुए कहा था कि चिपको मूवमेंट ने ही हमें पर्यावरण विभाग और पर्यावरण मंत्रालय दिया. इसी आंदोलन के बाद पर्यावरण से जुड़े नए कानून बनाए गए.' मैं अक्सर अपने विद्यार्थियों से कहता हूं, कि मात्रा का सिद्धांत मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ओंटारियो, कनाडा से सीखा और पर्यावरण यानी परिस्थिति विज्ञान की शिक्षा ‘चिपको-यूनिवर्सिटी’ ऑफ उत्तराखंड से पाई.
पर्वतीय दोहन खुलेआम किया गया
ये कहानी शुरू होती है भारत-चीन युद्ध के बाद, पर्वतीय सीमाओं तक सैनिकों की आवाजाही के लिए बनाई जाने वाली सड़क निर्माण से. इस दौरान, रक्षा के नाम पर, पर्वतीय दोहन खुलेआम किया गया. लेकिन इलाके के जागरूक लोगों ने इस खतरे को भांपा और इसके विरोध में अपनी आवाज बुलंद की. चंडी प्रसाद भट्ट 1964 से इस काम में लगे हुए थे.
गौरा देवी ने भी इस खतरे को समझा और इसके लिए जागरूकता फैलाने में लग गईं. ‘हम लोग खतरे में जी रहे हैं’, गौरा देवी की जुबां पर हर समय यही रहता था.
एक छोटी सी घटना ने, गौरा देवी के दर्द को, उनकी आवाज को देश और दुनिया से रू-ब-रू करा दिया. सूचना की पहरेदारी पर बैठे लोग अपना मुंह देखते रह गए. रैंणी गांव की उसी छोटी सी घटना को ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है.
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