तीन सप्ताह तक चलने वाली नंदा देवी
राज जात उत्तराखंड में त्योहार के रूप में मनाये जाने वाली तीर्थ यात्रा
है। समूचे गढ़वाल और कुमाऊं डिवीजन के साथ ही भारत के अन्य हिस्सों और दुनिया भर
से लोग नंदादेवी राज जात यात्रा में भाग लेते हैं।
मोली में, नंदा देवी राज जात यात्रा 12 साल में एक बार आयोजित की जाती है। जात ( यात्रा ) कर्णप्रयाग के निकट नौटी गांव से शुरू होती है और चार सींग वाले भेड़ जिसको खाडू कहा जाता है, के साथ रूपकुंड और हेमकुंड तक की ऊंचाई तक जा समाप्त होती है। हवन-यज्ञ आदि होने के बाद खाडू को गहने पहना कर सजाया जाता है, और अन्य उपहार और भेंट के साथ छोड़ दिया जाता है|
मान्यता है कि एक बार माँ नंदा अपने मायके आई थीं।
लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक
ससुराल नहीं जा सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया। यह राज
जात यात्रा कर्णप्रयाग से 25 किलोमीटर की
दूरी पर स्थित नौटी गांव से शुरू होती है। कंसुआ गांव के कुंवर समारोह का उद्घाटन
करते हैं। एक किंवदंती यह है कि माँ नंदा देवी ने अपने गांव को भगवान शिव
से रूठकर में छोड़ दिया था और रूठ कर वे नंदा देवी पर्वत पर चलीं गयी थी। इसलिए, जब यात्रा
शुरू होती है, हमेशा भारी बारिश होती है मानो कि देवी रो रहीं है।
किन्तु हमेशा से ही यह दुविधा बनी रही कि यह यात्रा
कब शुरू हुई| किंवदंतियों के अनुसार, नंदा देवी
राज जात जगदगुरु शंकराचार्य ने शुरू की थी। इतिहासकारों में इस पर काफी बहस होती
रही है, लेकिन पार्वती, देवाल, बेदीनी और
कैला बिनयाक में पाई गईं भगवती और भिग्नेश्वर की मूर्तियां 8 वीं से 10 वीं शताब्दी
ईस्वी पुरानी हैं| ज्यूरांगली में 9वीं सदी में पायी गयी गणेश की
मूर्ति इस तरह की यात्रा की परंपरा को स्पष्ट करती है।
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