उत्तराखंड के लोक जीवन में अलग ही ताल और लय है जिसकी छाप यहां के
लोकगीत एवं लोकनृत्यों में साफतौर पर परिलक्षित होती है। यहां के लोकगीत नृत्य
केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि लोक जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों एवं उनसे सीख लेने की
प्रेरणा भी देते हैं।
हालांकि आधुनिक परिवेश के समयचक्र में पहाड़ों में बहुत सारे
लोकगीत नृत्य विलुप्त हो गए हैं लेकिन बचे हुए लोकगीतों और नृत्यों की अपनी विशेष
पहचान है। यहां लगभग दर्जन भर लोकगीतों की विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं जिनमें
चैती गीत चौंफला, चांछडी और झुमैलो सामूहिक रूप से किए जाने वाले
गीत-नृत्य हैं।
चौंफला गीत
शरदकालीन त्योहारों में चांछडी और झुमैलों पहले ही शामिल थे लेकिन
अब बासंती खुशी का विशेष गीत चौंफला भी इन त्योहारों में गाया जाने लगा है।
झुमैंलो और चांछडी तथा चौंफला तीनों गीतों में पुरुष और महिलाओं की टोली बनाकर या
एक ही घेरे में नृत्य किया जाता है। तीनों के नृत्य की शैली भिन्न है किंतु तीनों
में श्रृंगार एवं भाव प्रधान होते है।
थडिया गीत
थडिया गीत भी इसी मौसम में गाया जाता है और ये गीत चौक तथा थडों (आंगन ) में गाए जाते हैं
इसीलिए इन्हें थडिया गीत कहा जाता है। इसके अलावा इन गीतों की विशिष्ट गायन एवं
नृत्य शैली को भी थडिया कहा जाता है।
पंडावर्त शैली
पांडवों के साथ जुड़ी घटनाओं पर आधारित पंडावर्त शैली के लोक नृत्य
वास्तव में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। ये लोकनृत्य 20 लोकनाटयों में 32 तालों एवं 100 अलग-अलग स्वर लिपि
में आबध्द होते हैं।
मंडाण लोकनृत्य
टिहरी और उत्तरकाशी जिले में मंडाण लोकनृत्य ढोल-दमाऊं पर किया
जाता है। इनको चार ताल में किया जाता है जिसमें देवी-देवताओं के आह्वान के गीत
शामिल हैं। देव जात्रा, जात और शुभ कार्य शादी विवाह एवं
चूड़ाक्रम आदि अवसरों पर इसकी प्रस्तुति की जाती है।
तांदि नृत्य
उत्तरकाशी तथा टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में तांदि नृत्य को
खुशी के अवसरों पर और माघ के पूरे महीने में पेश किया जाता है तथा इस नृत्य के साथ
में गाए जाने वाले गीत सामाजिक घटनाओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से रचा जाता है।
पण्डवार्त नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र में पांडवों के जीवन प्रसंगों (Themes) पर आधारित नवरात्रि में 9 दिन चलने वाले इस नृत्य/नाट्य आयोजन
में विभिन्न प्रसंगों के 20 लोकनाट्य होते है। चक्रव्यूह (Chakrvyuh), कमल व्यूह (Kamal Vyuh), गैंडी-गैंडा वध (Gaindi-Gainda Vadh) आदि नाट्य विशेष के रुप में प्रसिद्ध
है।
लंगविर नृत्य
यह पुरुषों द्वारा किए जाने वाला नट नृत्य ( Nuts dance )है। जिसमें पुरुष
खंभे की शिखर पर चढ़कर उसी पर संतुलन बनाकर ढोल-नगाड़ो पर नृत्य करता है।
चांचरी नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्रें माघ माह की चांदनी रात में स्त्री पुरुषों
द्वारा किए जाने वाला एक शृंगारिक नृत्य है। मुख्य गायक वृत (Circle) के बीच में हुडकी बजाते हुए नृत्य
करता है, और कुमाऊं क्षेत्र में इस नृत्य को झोड़ा ( Jhoda )कहते है।
झुमैला नृत्य
झुमैला सामूहिक नृत्य है जो बिना वाद्ययंत्रों के दीपावली और
कार्तिक के महीने में रात भर गाया जाता है।
हारुल नृत्य
यह जौनसारी जनजातियों द्वारा किया जाता है। इसकी विषयवस्तु (Theme) पाण्ड्वो (Pandwo) के जीवन पर आधारित होती है। इस नृत्य
के समय रमतुला (नामक वाद्ययंत्र (Musical Instruments) अनिवार्य रुप से बजाया जाता है।
बुड़ियात लोकनृत्य
बुड़ियात लोकनृत्य
जौनसारी समाज (Jaunsari Society) में यह नृत्य जन्मोत्सव (Nativity), शादी-विवाह एवं हर्षोल्लास (Enthusiasm) के अन्य अवसरों पर किया जाता है।
छोपती नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य प्रेम एवं रूप की भावना से युक्त
स्त्री-पुरुष का एक संयुक्त नृत्य संवाद प्रधान होता है।
घुघती नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं द्वारा
मनोरंजन के लिए किया जाता है।
भैलो-भैलो नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य दीपावली के दिन भैला बाँधकर किया जाता
है।
सिपैया नृत्य
यह गढ़वाली क्षेत्र का नृत्य देश-प्रेम (Patriotism) की भावना से ओत-प्रोत (Filled With) होती है। इस नृत्य से युवकों को सेना
में जाने का हौसला में वृद्धि होती है।
रणभुत नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र में वीरगति (Veergati) प्राप्त करने वालों को देवता के समान
आदर किया जाता है। उनकी आत्माओं को शांति के लिए उस परिवार के लोग रणभुत नृत्य
करते हैI इस नृत्य को "देवता घिरना" ("Devta
Ghirna")भी कहते है।
पवाड़ा या भाड़ौं नृत्य
यह कुमाऊं एवं गढ़वाल क्षेत्र के ऐतिहासिक (Historical)और अनैतिहासिक वीरों की कथाएं (Unhistoric Stories of
Heroes) इस नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। यहां ऐसी मान्यता है, कि वीरों के वंशजों में वीरों की
आत्मा प्रवेश करती है। ऐसे व्यक्ति जिन में वह आत्मा प्रवेश करती है, उसे पस्वा (Pasva)कहते है व पस्वा विभिन्न अस्त्रों से
कलाबाजियां करते हुए पवाड़ा नृत्य करता है।
झोड़ा नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र में माघ के चांदनी रात्रि में किया जाने वाला
स्त्री-पुरुषों का श्रंगारिक नृत्य है। मुख्य गायक वृत्त के बीच में हुडकी बजाता
नृत्य करता है। यह एक आकर्षक नृत्य है, जो गढ़वाली नृत्य चांचरी के तरह पूरी
रात भर किया जाता है। इस का मुख्य केंद्र बागेश्वर (Bageshwar)है।
बैर नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का गीत-गायन प्रतियोगिता (Contest) के रूप में दिन व रात में किए जाने
वाला नृत्य है।
भागनौली नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का मेलों में आयोजित किया जाता है। इस नृत्य में
हुड़का और नगाड़ा प्रमुख वाद्य यंत्र है।
बगवाल नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र (Kumaon) का लोकनृत्य (Folk Dance) है। इसमें दो पक्षों में विभक्त लोग
एक-दूसरे पर पत्थर फेंकते है।
जागर और पंवाडे लोकनृत्य
ऐसी मान्यता है कि जागर और पंवाडे लोकनृत्य गीत देवी-देवताओं को नचवाने
के लिए किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कथाओं पर आधारित गायन और छंदबध्द कथावाचन (गाथा ) के प्रस्तुतीकरण इस विधा का रोचक पक्ष
है। गायन-वादन के लिए विशेष रूप से गुरु शिष्य परंपरा से प्रशिक्षित व्यक्ति ही
आमंत्रित किए जाते हैं जिनका आज भी यही रोजगार है।
सरौं, छोलिया, पौंणा नृत्य
गढ़वाल में सरौं और छोलिया तथा पौंणा नृत्य प्रसिध्द हैं। तीनों की
शैलियां अलग-अलग हैं लेकिन भाव वीर रस एवं शौर्य प्रधान सामग्री का प्रयोग तीनों
में किया जाता है। सरौं नृत्य में ढोलवादक मुख्य किरदार में होते हैं जबकि छोलिया
और पौंणा नृत्य में वादक और नर्तक के साझे करतब परिपूर्णता प्रदान करते हैं।
इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊं, नगाड़े, झंकोरा तथा कैंसाल और रणसिंगा वाद्य
यंत्र एवं ढाल-तलवार अनिवार्य है। इन नृत्य गीतों में पचास साठ कलाकार एक साथ
शामिल होते हैं। वीरान किंतु सुरम्य पहाड़ी वादियों में जंगल में घास काटती
गढ़वाली महिलाओं की अलग गायन शैली है। विरह वेदना से व्यथित अथवा उदास पर्वतीय
नारी के मन की पीड़ा इन गीतों की स्वर लहरियों में फूट पड़ती है। बिना वादन और
नृत्य के ये गीत आज भी गढ़वाल के दूर-दराज जंगलों में घसियारियों द्वारा गाए जाते
हैं।
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