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Showing posts from March, 2018

चिपको आन्दोलन

चिपको आन्दोलन का सीधे-सीधे अर्थ है किसी चीज से चिपकर उसकी रक्षा करना. चिपको आन्दोलन की शुरुआत उत्तराखंड, पूर्व में उत्तर प्रदेश का भाग जो 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक नया राज्य बना. चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण की रक्षा करने का एक ग्रामीण आन्दोलन था. इसकी शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले में सन 1973 में हुई थी. तब गाँव के ग्रामीण किसानो ने राज्य के वन ठेकेदारों द्वारा वनों और जंगलो को काटने के विरोध में चिपको आन्दोलन लड़ा गया था. वनों की कटाई को रोकने के लिये गाँव के पुरुष और महिलाये पेड़ से लिपट जाती थी और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने देती थी. इस आन्दोलन में महिलायों की संख्या अधिक थी. इस आन्दोलन में प्रसिद्ध पर्यावरण प्रेमी सुन्दरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, श्रीमती गौरा देवी और गाँव के ग्रामीणों ने मिलकर इस आन्दोलन को अंजाम दिया. इस आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है. देश भर का हीरो बना दिया पांचवीं क्लास तक पढ़ी ‘गौरा देवी’ की पर्यावरण विज्ञान की समझ और उनकी सूझबूझ ने अपने सीने को बंदूक के आगे कर के, अपनी जान पर खेल कर, जो अनुकरणीय

गिरिजा देवी मंदिर - रामनगर

उत्तराखण्ड के प्रमुख देवी मंदिरों में शुमार है रामनगर का गिरिजा देवी मंदिर।माता पार्वती का यह मंदिर समूचे पर्वतीय अंचल में श्रद्धा और विश्वास का अद्भुत केंद्र माना जाता है।उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध शहर रामनगर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर सुंदरखाल गांव के निकट एक छोटी पहाड़ी के ऊपर बने इस देवीधाम की आध्यात्मिक शांति और प्राकृतिक सौंदर्य से यहां आने वाले हर श्रद्धालु का मन सहज ही मुग्ध हो जाता है। खूबसूरत वातावरण शांति एवं रमणीयता का अहसास दिलाता है.यह मंदिर पर्वतीय समाज के मध्य गर्जिया देवी (पार्वती) मंदिर के नाम से भी लोकप्रिय है। अनेक जनश्रुतियां इस स्थान के तमाम इतिहास बताती हैं कहा जाता है कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है,वह टीला पौराणिककाल में कोसी नदी की बाढ़ में किसी ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था,मंदिर को टीले के साथ बहते हुए आता देखकर भैरव देव द्वारा उसे रोकने का प्रयास कर कहा- ‘‘थि रौ, बैणा थि रौ’ यानी ‘‘ठहर जाओ बहन,यहां पर मेरे साथ निवास करो तभी से गर्जिया देवी यहीं बस गयीं। मन्दिर कोसी नदी पर स्थित है।या सीधे शब्दों मे कहूँ तो

Almora, Uttarakhand

प्रकृति के मनोहारी द्रश्योंम से भरपूर उत्तरांचल का एक खुबसूरत जिला अल्मोड़ा, सुन्दर पहाड़, घने जंगल, खुबसूरत वादियां, साफ सुथरी झीलें, कल-कल करती नदियाँ, पुरातन सांस्कृनतिक प्रभाव यही सब अल्मोड़ा को भारत का स्वीयटजरलैण्ड कहे जाने के लिये विवश करता है। यहाँ से हिमालय का शानदार द्रश्य् बड़ा ही मनोहारी दिखायी देता है, अगर हिमालय छूने की तमन्ना  हो तो बस पहुँच जाईये कौसानी। अल्मोड़ा पुराने जमाने में चंद राजवंश की राजधानी थी, ये क्षेत्र कत्यूनरी राजा बयचलदेव की हुकूमत के अंदर आता था, जिसे उन्हो ने एक गुजराती ब्राह्रमण श्री चंद तिवारी को दान में दे दिया था। और फिर १५६० में चंद राज्यह के कल्याउन चंद ने अपनी राजधानी चम्पारवत से अल्मोकड़ा विस्थाथपित कर दी।  यह शहर घोड़े की काठी के आकार की लगभग ६ किमी. लम्बीम पहाड़ी पर बसा है। तेजी से बड़ता भवन निर्माण, उसके चलते तेजी से कटते पेड़ धीरे-धीरे कहीं इस शहर की सुंदरता भी कम ना कर दें। लोकल हस्तशिल्पः   ऊनी – माल रोड; तांबे का काम – टमटा मोहल्ला) सामान्य् ज्ञानः        क्षेत्रफल – ११.९ वर्ग किमी. (शहरी) समुद्र से ऊँचाई

रुद्रनाथ मंदिर, उत्तराखंड

रुद्रनाथ (संस्कृत: रुद्रनाथ) भारत के उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय पर्वतों में स्थित भगवान शिव को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। समुद्र तल से 3,600 मीटर (11,800 फीट) पर स्थित, यह प्राकृतिक रॉक मंदिर रोडोडेंडन बौनों और अल्पाइन चरागाह के एक घने जंगल के भीतर स्थित है। यह मंदिर पंच केदार तीर्थ यात्रा में दौरा किया जाने वाला तीसरा मंदिर है, जिसमें गढ़वाल क्षेत्र में पांच शिव मंदिर शामिल हैं। सर्किट में अन्य मंदिरों में शामिल हैं रुद्रनाथ और मगधेश्वर या मादाहेश्वर और कलपेश्वर से आने के बाद केदारनाथ और तुंगनाथ का दौरा करने के लिए रुद्रनाथ भगवान शिव का चेहरा (मुक्ता) को “नीलकंठ महादेव” के रूप में पूजा की जाती है। ट्रेक सागर गांव से शुरू होता है जो गोपेश्वर से लगभग 3 किमी दूर है। अन्य ट्रेक मंडल से शुरू होता है जो गोपेश्वर से 12 किलोमीटर दूर है। यह यात्रा अनुसुया देवी मंदिर के माध्यम से जाती है। लगभग 24 किमी की दूरी के साथ ट्रेक बहुत मुश्किल है। माना जाता है कि रुद्रानाथ मंदिर पांडवों द्वारा स्थापित किया जाता है, हिंदू महाकाव्य महाभारत के नायक पौराणिक कथा यह है कि

उत्तराखंड के वैवाहिक रीति

उत्तराखंड में आज भी विवाह की ऐसी लोकरीतियां प्रचलित हैं जिनके बिना विवाह संस्कार अधूरा समझा जाता है। उत्तराखंड में विवाह समारोह लगभग तीन दिन पहले कन्या और वर पक्ष के यहां शुरू हो जाता है  जिसे पूर्वांग पूजन कहा जाता है। इस दिन महिलाओं द्वारा 'सुवालपथाई’ थाने समद्यूड़ा को भेजे जाने वाले पकवान तैयार किए जाते हैं। इनमें तिल के लड्डू, पापड़ी, पूरी और समधी-समधन के चेहरे की प्रतिकृतियां तैयार करके भी भेजी जाती हैं। पूर्वांग पूजन के ही दिन कंकण बंधन किया जाता है।  उसके बाद वर-कन्या घर से बाहर नहीं जाते। वर पक्ष जब बारात लेकर कन्या के द्वार पहुंचता है तो वर के चरण धोए जाते हैं। वर का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ वरण किया जाता है। कन्यादान संकल्प के साथ विवाह होता है। कन्या पक्ष के लोग विदाई तक निराहार व्रत रखते हैं। विदाई के बाद उत्तरांगपूजन, तिलपात्र दान गोदान के बाद कन्या के माता-पिता और पारिवारिक कुटुंबी भोजन ग्रहण करते हैं। इस परंपरा का आज भी उत्तराखंड में बड़ी सावधानी से निर्वाह किया जाता है। वधू के नए घर में प्रवेश के समय ज्योति पूजन होता है। इसी दिन वाणीपूजन (नौल सिलाना) होत

उत्तराखंड का एक ऐसा गांव जहाँ बस एक अकेली महिला रहती है

एक ऐसा गांव जिसकी जनसंख्या है ‘1’। सुनने में थोड़ा अजीब ज़रूर है लेकिन उत्तराखंड के मुसमोला गांव की यही हकीकत है। उत्तराखंड में पलायन की अलग-अलग कहानियों को जानने और डॉक्यूमेंट करने के सिलसिले में मेरी मुलाकात हुई लीला देवी से। लीला इस गांव में अब अकेली रहती हैं। इस गांव से बाकी सभी लोग बेहतर या आसान ज़िंदगी के लिए पलायन कर चुके हैं। तकरीबन 50 साल की लीला देवी ने बताया कि एक समय उनके गांव में 4 संयुक्त परिवारों के करीब 30 से 40 लोग रहा करते थे, लेकिन आज वहां केवल वो ही बची हैं। परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके पति का देहांत काफी समय पहले हो गया था, एक बेटी है जो शादी के बाद देहरादून में रहती है। जब उनसे पूछा गया कि यहां उन्हें किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, तो वो भावुक हो गयी और उन्होंने एक ही बात कही, ‘अकेले डर लगता है’। लीला देवी पशु पालती हैं, थोड़ी बहुत खेती भी करती हैं और इसके साथ ही पास ही के प्राइमरी स्कूल में ‘भोजन माता’ यानि कि मिड डे मील पकाने का भी काम करती हैं। वो बताती हैं कि उनकी बेटी उन्हें एक लम्बे अरसे